धर्म/ज्योतिष

क्रोध को वश में करने से जीवन सहज और सरल हो जाता है

आमतौर पर, हम क्रोध या घृणा की ज्यादा परवाह नहीं करते। इसलिए यह सहजता से आ जाते हैं।यदि हम इन भावनाओं के विषय में सजग हो जाएं, तो हमारा क्रोध व घृणा के प्रति इस अनिच्छापूर्ण रुख से ही जीवन सहज और सरल हो जाए।

घृणा के विनाशकारी प्रभाव स्पष्ट और तुरंत दिखाई दे जाते हैं। उदाहरण के लिए, जब आपके अंदर घृणा का अत्यंत तीव्र भाव उत्पन्न होता है, तो उसी क्षण, वह आपके ऊपर पूरी तरह से हावी हो जाता है और आपकी मानसिक शांति को भंग कर देता है; आपकी बुद्धि काम करना बंद कर देती है। क्रोध और घृणा के तीव्र भाव आपके दिमाग के सबसे बेहतरीन हिस्से, यानी सही व गलत तथा आपके कार्यों के अल्पकालिक व दीर्घकालिक प्रभावों में अंतर करने की क्षमता को बिलकुल मिटा देते हैं। निर्णय लेने की योग्यता पूरी तरह निष्क्रिय हो जाती है। आप लगभग पागल जैसे हो जाते हैं। यह क्रोध और घृणा आपको दुविधा की स्थिति में डाल देते हैं, जिससे आपकी समस्याएं और परेशानियां और बढ़ जाती हैं।

शारीरिक स्तर पर भी, घृणा से व्यक्ति में बहुत गंदा, अनाकर्षक शारीरिक बदलाव आ जाता है। क्रोध व घृणा के तीव्र भाव जाग्रत होने पर, व्यक्ति कितना भी अच्छा दिखने की कोशिश करे, उसका चेहरा भद्दा और विरूपित दिखाई देता है। घृणा की तुलना शत्रु से की जाती है। यह भीतरी दुश्मन नुकसान पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं करता। यह हमारा पक्का दुश्मन, हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। यह हमें तात्कालिक और दूरगामी दोनों तरह से नष्ट करता है।

यह सामान्य शत्रु से बहुत अलग है। हालांकि कोई आम शत्रु, जिसे हम अपना शत्रु मानते हैं, हमें हानि पहुंचानेवाले काम करता है, उसके पास कम-से-कम कुछ और भी काम होते हैं; वह व्यक्ति खाता है, सोता है। इसलिए उसके पास अन्य कार्य होते हैं और वह चौबीसों घंटे हमें नुकसान पहुंचाने का काम नहीं कर सकता। परंतु घृणा के पास हमें नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और काम, कोई अन्य उद्देश्य नहीं होता। इस बात को समझकर, हमें यह दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि हम अपने इस शत्रु को, घृणा को अपने अंदर उत्पन्न होने का अवसर नहीं देंगे।

कुछ लोग अतीत में उनके साथ किए गए गलत कार्य के कारण क्रोध एवं घृणा के भाव अपने अंदर पालते हैं और यह भाव उनके अंदर बंद रहते हैं। लेकिन हमें इन्हें अपने अंदर बंद रखने की जगह उन्हें बाहर निकलने देना चाहिए। हालांकि, आमतौर पर क्रोध और घृणा ऐसे भाव हैं, जिन्हें यदि आप यों ही अनियंत्रित रहने दें, तो वे बढ़ते जाते हैं। यदि आप इन भावों को जाग्रत होने पर इन्हें अभिव्यक्त करने की आदत डाल लें तो भी ये कम होने की बजाय बढ़ जाते हैं। आप जितना सावधान रहकर और सक्रिय रूप से इनकी तीव्रता को कम करने की कोशिश करेंगे, उतना ही बेहतर होगा। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम क्रोध को अपने वश में करें, न कि क्रोध के वश में हों। क्रोध को वश में करते ही जीवन सहज और सरल हो जाता है।

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