बचिए, राष्ट्र गौरव को छलनी करने वाली टिप्पणियों से…
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हे! महामानव..श्रद्धेय अटल जी मुझे क्षमा कीजिएगा मैं आपकी उन पंक्तियों की जिसमें आपने प्रखर राष्ट्रधर्मी के लिए त्याग..तप..तेज..तिलमिलाहट.. तितिक्षा जैसे ओज शब्द कहे थे। उन्हीं शब्दों से सीख लेकर मैं उस राष्ट्रधर्मी के लिए कुछ लिख पाने का प्रयास कर रहा हूँ। जो भी लिखूँगा.. कहूंगा..वह उनके प्रति शब्द सुमन होंगे.. आशा है गोलोक से मुझे आपका आशीष मिलता रहेगा। यथा..
सावरकर माने सनसनी.. सावरकर माने समर्पण.. सावरकर माने साहस.. सावरकर माने सामंजस्य.. सावरकर माने सहजता.. सावरकर माने सरलता..
इससे भी कहीं ज्यादा स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के पौरुष..पराक्रम…गाथाओं को गूंथा जा सकता है। यह बात लिखने.. कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी?… क्योंकि उनकी राष्ट्रीयता.. उनके त्याग.. उनके तप..उनकी राष्ट्र सेवा की निष्ठा पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। प्रश्न भी उन कागज के टुकड़ों को हवा में लहरा कर उठाये जा रहे हैं जो आधे-अधूरे हैं। यह तो मात्र लहराने वाले अपनी राजनीति चमकाने के लिये आवश्यक समझते हैं। मेरा प्रश्न है क्या कागज के अधूरे पन्नों से किसी महा-आत्मा.. महा-पुरुषज्या महा-मानव के गुण-दोषों की व्याख्या की जा सकती है? क्या स्वाधीनता की वेदी में स्वयं को होम कर देने वालों को अपमानित किये जाने का अधिकार है? या फिर अपनी राजनीति के खोई चमक पाने के लिए स्वाधीनता के सपूतों को भी अपनी कुटिलता के कोल्हू में पेर देना चाहिए? इन प्रश्नों के उत्तर शायद ही उन्हें पढ़ाये गए शब्दकोश में हों पर यह सत्य है कि स्वतंत्रता के लिए दिए गए बलिदान को न तो झुठलाया जा सकता और न ही कोसा जा सकता है खासकर उन वीरों का लिए जो राष्ट्र..राष्ट्रधर्म और राष्ट्रीयता को अक्षुण्य रखने के लिए प्राण न्योछावर कर दिए हों.. या अनवरत कार्य में मग्न हों। जहां तक बात सावरकर की है तो उनके संग्राम को..उनके योगदान को लेकर तब से टिप्पणियां हो रही हैं जब भारत भूमि की स्वतंत्रता के लिए स्वयं को होम करने का संकल्प ले चुके थे। सावरकर की जेल यात्राओं को लेकर सदैव से टीका टिप्पणियों का दौर चल रहा है। उनकी ब्रितानी आक्रांताओं को लिखे पत्रों के चुनिंदा पन्नों को अपनी दशा..अवसर विशेष पर दिखाने..कहने का क्रम चल पड़ा। इसमें दो मत नहीं है कि यह सब राजनीतिक लाभ लेने के लिए किया गया। इससे उनके उद्देश्यों की पूर्ति हुई या नहीं यह और बात है।
सावरकर ही नहीं अपितु राष्ट्र के लिए लडऩे वाले ऐसे समस्त जन जिनका परोक्ष-अपरोक्ष योगदान है.. था और रहेगा उन पर टीका-टिप्पणी करना वैश्विक पटल पर स्वयं से अपने राष्ट्र की निंदा करने के समान है। यहां उस टिप्पणी कार को आत्मावलोकन करना चाहिए कि उसके कारण विश्व हमारे राष्ट्र को किस दृष्टि से देख रहा है। वह यह सोचने को विवश है कि ऐसे लोग जो अपने ही वंशजों के बलिदान और योगदान पर प्रश्न उठा रहे हैं। वह हमारा इतिहास लिख रहे हैं ताकि हमारी बौद्धिक संपदा का नाश किया जा सके। भारत जैसे राष्ट्र के निवासी होने का जो गौरव मुझे प्राप्त है उस आधार पर मेरी यही अभिलाषा है कि दलीय दलदल की सड़ांध में बलिदानी, वीरों को न घसीटा जाय।
महापुरुषों पर कसीदें गढऩे जैसी बातों से उस जनता का क्या सरोकार जो हर पांच वर्ष में इस लिए कतार में लगती आ रही है कि इस बार जिसे चुन रहे हैं वह हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में सक्षम होगा? तो फिर उन मुद्दों की बात क्यों नहीं की जाती है। विकास पर बहस हो..समृद्धि की सोच हो..न की स्वतंत्रता वेदी में होम हुए वीरों पर अनर्गल टीका टिप्पणी।
-सचिन त्रिपाठी (त्रियामी)