धर्म/ज्योतिष

अब कुंवारा रह जाता है घर का आंगन, शादी के पंडाल में गुम हो गये बन्ना-बन्नी के लोक गीत

डीजे के धमाल में लुप्त होती जा रहीं वैवाहिक परंपराएं, विवाह के दौरान निभाई जाने वाली अधिकांश रस्मों को भूलती जा रही युवा पीढ़ी

सुषमा धामी

Realindianews.com
पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण और भागमभाग भरी जिंदगी में वैवाहिक कार्यक्रमों का स्वरुप दिन प्रतिदिन बदलता जा रहा है। वर और वधू पक्ष के परिवारों को माटी से जोडऩे वाली अधिकांश परंपराएं खत्म होने की कगार पर हैं। आने वाली पीढ़ी को कहानियों में मिलेगी पुरानी वैवाहिक रस्में। वैवाहिक कार्यक्रमों के घर के आंगन से बाहर बारातघरऔर मैरिज गार्डन में करने की परंपरा के कारण अब घर के आंगन कुंवारे रह जाते हैं,जबकि पूर्व में इसका ध्यान रखा जाता था कि आंगन कुंवारा नहीं रह जाए। इसके लिए लोग दूसरों के बेटियों का विवाह तक अपने घरों के आंगन से करने के लिए तैयार हो जाते हैं। आधुनिकता की दौड़ में लोग पुरानी रीतियां भूलते जा रहे हैं।
चट मंगनी पट ब्याह में बदल गये कई दिनों के समारोह
इन दिनों आधुनिक वैवाहिक कार्यक्रमों का पूरा स्वरूप ही बदलता जा रहा है। अब पंडालों और बारातघरों में द्वारचार से शुरू होने वाला वैवाहिक कार्यक्रम द्वारचार होने के साथ ही सिमटने लगता है। आज से दो दशक पहले तक वैवाहिक कार्यक्रम कई दिनों के हुआ करते थे। इनमें बाकायदा दोनों पक्ष के लोग बैठकर एक-दूसरे का परिचय प्राप्त करते थे। पूरा परिवार एक गांव स्वरूप दिखता था। परिवार के हर किसी की अहमियत दिखती थी जो अब नहीं दिखती है।

खोती जा रही बैंडबाजों व शहनाई की मधुर तान

एक जमाने में विवाह कार्यक्रमों की शान हुआ करती थीं शहनाईयां। बगैर शहनाईयों के विवाह कार्यक्रम अधूरे ही माने जाते थे। शहनाई की वह मधुर तान समय के साथ बैंड -बाजे और अब इसके बाद डीजे के शोर में दब गई है। वैवाहिक कार्यक्रमों में अब शहनाई की मधुर धुन सुनाई ही नहीं देती है। डीजे के आगे बैंड की भी पूछ परख कम होती जा रही है। जिन वैवाहिक कार्यक्रमों में बैंड और डीजे दोनों बुलाए जाते हैं उनमें देखा जा रहा है कि लोग डीजे के आगे नाचते रहते हैं। डीजे के कानफ ोडू शोर के आगे अन्य संगीत वाद्य दबते जा रहे है। यही कारण है कि अब कई वैवाहिक कार्यक्रमों में लोग बैंड के बजाए सिर्फ डीजे ही बुक कराने लगे हैं।
घोड़ी और बग्घी की जगह कार
शादी में दूल्हा घोड़ी या बग्घी में बैठकर पहले दुल्हन के दरवाजे तक पहुंचता था। अब इनकी उपलब्धता और मांग दोनों में कमी के कारण अब इनका स्थान कारों ने ले लिया है। दुल्हन की विदाई पहले डोली में हुआ करती थी। अब इस परंपरा पर पूरी तरह से कारे हावी हो चुकी हैं। अब कहार डोली नहीं उठाते हैं। अब कारों में विदाई होती है। चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रुत आई का अनिवार्य फिल्मी गीत भी अब नहीं सुनाई देता।
रिश्तेदारों तक को नहीं पहचानते


विवाह के नए स्वरूप में वर और वधू पक्ष के रिश्तेदार एक-दूसरे को पहचान भी नहीं पाते हैं। वधू पक्ष का कौन पैर पडक़र चला जाता है वर पक्ष के लोगों को इसका पता ही नहीं होता है। हालात यह होते हैं कि दूल्हे तक को पता नहीं होता है कि कौन-कौन लोग उसको आशीर्वाद देकर चले गए। लोगों को मामा और फूफा जैसे नजदीकी रिश्तेदारों के बारे में भी ज्यादा पता नहीं होता है। पहले दोनो पक्षों के प्रमुख रिश्तेदारों की भेंट रस्म हुआ करती थी जिससे दोनों पक्षों के लोगों एक दूसरे को पहचान लें लेकिन अब यह परंपरा भी गुम होती जा रही है।
दूल्हा और दुल्हन तक सिमटी शादी
आजकल का पूरा वैवाहिक कार्यक्रम दूल्हा और दुल्हन के आस-पास सिमटता जा रहा है। रिश्तेदारों की भूमिका धीरे-धीरे घटती जा रही है। पहले की तरह अब ना वर पक्ष के लोगों से वधू पक्ष का परिचय कराया जाता है और ना ही वर पक्ष के लोगों को इतना जानने के लिए समय होता है। जबकि पूर्व में लोग एक-दूसरे के परिवारों को बारे में जानने के लिए लालायित रहते थे। इस कारण परिवार की कडिय़ां आपस में जुड़ी रहती थीं। रिश्तेदारों के बीच बढ़ती दूरियों का परिणाम यह है कि बेटियां और बेटे दूसरे समाज में जाकर विवाह कर रहे हैं और वे बड़े-बुजर्गों की अहमियत भूल गये।
कुएं बचे नहीं, पूजे जा रहे हैंडपंप
विवाह कार्यक्रम हों या बच्चों के जन्म और अन्य धार्मिक कार्यक्रमों में कुआं पूजन का विशेष महत्व होता था। अब शहरों क्षेत्रों में कुएं बचे नहीं हैं, इससे अब यह कार्यक्रम हैंड पंप और बाल्टी पूज कर रस्म अदायगी कर रहे हैं। पंडित बृजवासी लाल दुबे ने बताया कि पहले कुंए को परिवार का सदस्य माना जाता था। कुंए से परिवारिक रिश्ता होता था जो अब समाप्त हो गया है।
मागर माटी के लिए जगह नहीं
वैवाहिक कार्यक्रमों में मागर माटी का विशेष महत्व होता था। मागर माटी में गांव की महिलाएं गाजे-बाजे के साथ मिट्टी को खोदकर लाती थी, उसी मिट्टी से मड़वे के पास चूल्हा बनता था। इसी चूल्हे में विवाह के एक दिन पहले रौ छौंकने की रस्म निभाई जाती थी। इन्हीं चूल्हों में लावा परोसने की रस्म निभाने के लिए लावा भूंजने की रस्म क भी निभाई जाती थी। अब रस्मो को आपस में जोडऩे वाली ये रस्म अब महज औपचारिकता तक सिमटकर रह गई हैं।
सिमट गया मगरोहन भी
हिंदू समाज में वैवाहिक कार्यक्रमों में मंडप के नीचे स्थापित किये जाने वाला मगरोहन भी सिमट कर रहा गया। पहले मगरोहन विवाह के लिए अनिवार्य वस्तु माना जाता था। इसकी अलग महत्ता होती है। सारी वैवाहिक रस्में इसी मगरोहन के इर्द गिर्द पूरी की जाती थीं और जिस स्थान पर मगरोहन की स्थापना की जाती थी वह साल भर वहीं पर रहता था। परंतु आपाधापी के इस युग में मगरोहन भी इधर-उधर घूमने लगा है। मगरोहन को सीधे शादी के पंडाल में पहुंचा दिया जाता है और बारात की विदाई के बाद उसे फिर उठा घर के किसी कोने में सिर्फ परंपरा निभाने के लिए रख दिया जाता है।
गारी नहीं मिली तो गुस्साए
वैवाहिक कार्यक्रमों मे वर पक्ष के लिए गारी गाने का भी महत्व है। इसमें वधू पक्ष की महिलाएं वर पक्ष के परिवार और रिश्तेदारों के लिए गारी गाती थी। वह वैवाहिक कार्यक्रमों के महत्वपूर्ण परंपरा में से एक माना जाता था। पूर्व में वैवाहिक कार्यक्रमों के दौरान कई बार ऐसा भी देखने में आया कि किसी रिश्तेदार विशेष को गारी नहीं देने पर वे गुस्सा लेते थे। यहां तक कि वे इसकी शिकायत भी करते थे कि उन्हें गारी क्यों नहीं दी गईं। पूर्व में समधी को नाम लेकर अलग-अलग तरह की गारी दी जाती थी जिससे संबंधों का पूरे परिवार को पता चलता था। अब तो यह सब बंद हो जाने से परिवार के लोग संबंधों को जान नहीं पाते है। संबंध तो नाउन,नाई, बारी तक के होते थे। विवाह में जितना महत्व पंडित का होता था उतना ही नाऊ का होता था। अब तो नाऊ से बात तक नहीं की जाती है।
मंडप में उड़ता था रंग गुलाल
वैवाहिक कार्यक्रम में कवित्र होता था वह अब बंद हो गया है। वधू पक्ष की महिलाएं वर पक्ष के लोगों से रंग-गुलाल भी खेलती थी। अब तो महंगे कपड़े गंदे नहीं हों इसलिए यह प्रथा बंद हो गई है।
धोबिन देती थी सुहागन
वैवाहिक कार्यक्रमों में धोबिन की भी भूमिका रहती थी। जब तक धोबिन सुहागन नहीं देती थी तब तक विवाह पूर्ण नहीं माना जाता था। मौर्य सिराने के लिए परिवार एवं गांव की महिलाए एक साथ गाजे-बाजे के साथ नदी जाती थी। वैवाहिक कई दिनों तक चलते थे जो अब एक दिन में हो जाते हैं।
तब विदा होती थी गांव की बेटी
वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान वधू पक्ष के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षण विदाई का होता है। पहले गांव के बिटिया की विदाई में पूरा गांव उमड़ पड़ता था। गांव की बिटिया को ससुराल में किसी प्रकार की परेशानी नहीं हो इसलिए गांव के लोग नकद राशि के साथ ही गृहस्थी में उपयोग होने वाली सामग्री भी उपहार में भेंट करते थे। अब तो विदाई कार्यक्रम में महज रस्म अदायगी होती है। हालात यह होते हैं कि विवाह कार्यक्रम के समापन के पूर्व ही कई रिश्तेदार जा चुके होते हैं। विदाई के दौरान वधू के परिवार के ही चंद लोग मौजूद होते हैं।
व्योहार मतलब आर्थिक सहयोग
वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान वधू पक्ष को आर्थिक परेशानी नहीं उठानी पड़े इसके लिए क्षेत्र के लोग वधू पक्ष को व्यौहार के रूप में नकदी और सामग्री भेंट करते थे। यह परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।
विलुप्त होती जा रहीं पंगतें
वैवाहिक कार्यक्रमों के दौरान पूर्व में बारातियों को पैर धुलाकर पंगत में बैठाकर भेाजन कराया जाता था। आज कल बफ र भोजन के आगे यह रश्म भी अंतिम संासें गिनती नजर आ रही है।पहले वैवाहिक कार्यक्रम के दौरान बेटियों को परिवार के लोग उपहार के रूप में दैनिक उपयोग में आने वाली सामग्री दिया करते थे। अब समय के साथ इसका स्वरूप बदल गया है। अब उपहार की जगह वर पक्ष की ओर से दहेज की लिस्ट वधू पक्ष को दी जाती है। अब तो सभी कुछ आन लाईन बुक हो जाता है जिस कारण परिवार से पूछने और साथ में बाजार जाने की रश्म खत्म सी हो गयी है। जिस कारण परिवार में एक जुटता खत्म सी होती जा रही है।
दूल्हे के जूते छुपाने की रस्म
विवाह कार्यक्रम के दौरान अब अधिकांश रश्में महज औपचारिकता तक सिमट गए हैं। वेवाहिक कार्यक्रम के दौरान दूल्हे के जूते छिपाने की रश्म को दुल्हन की बहनों द्वारा निभाया जाता था। यह परंपरा कहने को तो आज भी कायम है लेकिन इसका स्वरूप पूरी तरह से बदल गया है। पहले जहां इस रश्म में संबंधों का अहसास होता था वहीं अब यह दिए गए दहेज के बदले कितने रुपए वापस लिए जा सकते हैं इस पर आधारित होता है।
इनका कहना है-

-पहले की शादी मेें एकजुटता और प्यार मिलता था। मेरी समझ में लोग दिखावा के चक्कर में गरीब परिवार के लोग भी शादियों में दिखावा करने लगे हैं। आज के बच्चों को परिवार से कोई मतलब नहीं हैं वे अपनी शादियां खुद करने लगे हैं। इसी कारण परिवार में प्रेम घटता जा रहा है। अब शादियों में सिर्फ दिखावा रह गया है। अब लोग मार्डन होते जा रहे हैं, कोर्ट मेरिज कर रहे हैं। परिवार का महत्व नहीं समझ रहे हैं।
-प्रीति सिंह, लायंस क्लब अध्यक्ष

-समय के साथ सब कुछ बदल गया है। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में युवा अपनी संस्कृति भूल गये हैं। आज के युवा वर्ग को नौकरी के लिए बाहर जाना होता है जिस कारण उन्हें समय के साथ बदलना होता है। वहीं समाज में दिखावा आ गया है जिस कारण एक दूसरे की अहमियत भूल गये हैं। आधुनिकता नें सभी को पुराने से दूर कर दिया है। पहले एक जुट हो कर वैवाहिक कार्यक्रमों को सभी करते थे अब वह बात नहीं रही। अब संयुक्त परिवार भी नहीं है जिस कारण प्यार घटा है। सभी अपनी स्टाईल में जीना चाहते हैं।

रागिनी प्रणामी सचिव लीनेस क्लब

-मेरा मानना है कि लोगों मे समय का अभाव एवं परिवारिक निकटता कम होती जा रही है। शादी अब फ ारमल्टी हो गई है। अब रुपए फेंक कर एक दिन में विवाह कर लेते हैं। लोगों को मुहूर्त का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
रजनी खरे, गृहणी

-आधुनिक वैवाहिक कार्यक्रम एवं पुरातन वैवाहिक कार्यक्रम में कमोवेश यह परिवर्तन है कि पहले रिस्तों में आत्मीयता सम्मान एवं आतिथ्य का भाव था। दस से 15 दिन रिस्तों दारों के यहां मेहमानों की चहल-पहल रहती थी। परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष में सभी एक समय में सम्पन्न हो जाता है। समय के साथ सब कुछ बदल गया है। जरुरत हैं परिवार में एक जुटता के साथ प्रेम बढ़ाने की जो अब कम होता दिख रहा है। परिवार में बड़ा जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता है जिस कारण परिवार में वैवाहिक कार्यक्रम दिखावा में परिवर्तित होते जा रहे हैं।
-कांता अग्रवाल, गृहणी

-पहले जमाने की शादियों में और अब की शादियों में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है। पहले 5 से 7 दिन शादी होती थी खर्चा भी कम होता था। खाना भी हिसाब से बनता था। आजकल की शादियों में दिखावा ज्यादा हो गया है। बहुत महंगी शादियां होती है। बहुत सारे खाने के आइटम होते है जो लोग खाते कम है फैकते ज्यादा है। कोविड की शादियों में कम लोगोंं मे अच्छी शादियां हुई। हम शादियों में दिखावा न करते हुए फालतू खर्च ना करे और उन पैसो का उपयोग सेवा कार्य मे लगा दे तो समाज मे एक अच्छा संदेश जाएगा।
-मंजूषा शाह,समाज सेविका

-यह बात सच है कि अब विवाह की रश्मों एवं समय सीमा की कमी आ गई है, परन्तु इसमे प्रत्येक की विवशता है कि वह उतना समय नहीं दे पाता है। अत्यधिक व्यवस्तता एवं समय की कमी ने विवाह उत्सव का स्वरुप छोटा करना पड़ रहा है। घर में होने वाले कार्यक्रमों में पूरा परिवार एक जुट होता था वह अब नहीं रहा है। घर के आंगन मे सारे कार्यक्रम होते थे वह अब नहीं रहे है। इसी कारण परिवार में जो प्रेम होना चाहिए वह नहीं रहा है।
-लक्ष्मी रैकवार, गृहणी

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