100 साल पुरानी विंध्य प्रदेश की दीपावली
मिट्टी के दियों को मोमबत्ती और बिजली के बल्बों ने ढकेल कर बाहर किया
Realindianews.com.
विंध्य प्रदेश के सतना जिले में सौ साल पहले दीपावली मनाने का वास्तविक समय कौन सा रहा होगा, यह अधिकृत रूप से बता पाना सम्भव नहीं है, लेकिन हिन्दुओं का यह महत्वपूर्ण पर्व है और उत्तर भारत में तो इस पर्व के साथ व्यापार, खेती भी जुड़ी है। सतना बस्ती के प्रथम नागरिक बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड, उत्तर प्रदेश से आये लोग ही सर्वाधिक थे, अस्तु निश्चय ही सतना बस्ती के आबाद होने के साथ ही दीवाली मनाई जाने लगी होगी। प्रारंभ में यहां आये लोग पेशे से मजदूर और छोटे-छोटे दुकानदार ही थे। दीवाली की रात इन्होने मिट्टी का दीपक जलाया होगा और कुम्हारों की बनाई गणेश लक्ष्मी की मूर्ति भी कुछ दुकानदारों ने पूजी होगी। बतासा और गुड़ का प्रसाद बांटा होगा। बस्ती बसने के साथ कुम्हार यहां आ गये थे और कुम्हार गणेश लक्ष्मी की मूर्ति सदियों से बनाते आ रहे थे। यहां भी उन्हीने बनाई होगी।
हर दुकान के बाहर केले के पूरे पेड़ काट कर लगाये जाते थे
वैसे सन् 1905 के बाद सतना में दीवाली तरीके से मनाने की जानकारी मिलती है। सेठ हीरालाल मारवाड़ी बताया करते थे कि उनके नाना सेठ मुकुन्दीलाल जिन्होने सतना में सिरकम ऊंट गाड़ी चलवाई थी, उन्हें दीवाली की रात अपने साथ पन्नीलाल चौक मे पाठक जी की गद्दी और सेठ दिगनलाल की गद्दी पर ले जाते थे वहां पंडितजी पूजन कराते थे, मिठाई मिलती थी। सेठ मुकुन्दीलाल और स्वयं सेठ हीरालाल मारवाड़ी के पिताजी वैध रघुनाथ प्रसाद अपने घर में दीवाली की रात पूजन करते थे।
दीवाली को हर दुकान के बाहर केले के पूरे पेड़ काट कर लगाये जाते थे
दीवाली के दो दिन पूर्व धनतेरस को भगवान धन्वंतरि का पूजन सतना के सभी वैद्य अपने-अपने यहां करते थे। इस दिन लगभग सभी कोई न कोई बर्तन खरीद कर घर ले जाते थे। जैसे-जैसे सतना का व्यापार बढ़ा और दुकानदार समृद्ध हुये उसी स्तर पर दीवाली का भव्य आयोजन होने लगा। दीवाली को हर दुकान के बाहर केले के पूरे पेड़ काट कर लगाये जाते थे, इन पेड़ों के बीच दो या तीन लाइनें बांस की रेलिंग की तरह बनाई जातीं। इन पर सैकड़ों मिट्टी के दीपक रखे जाते और शाम को इनमें तेल तथा रुई की बत्ती डाली जाती। दुकान में पूजन होते ही इन्हें जला दिया जाता। घर और दुकान के बाहर आम के पत्तों का बंदनवार टांगा जाता था। दुकानदार अपनी दुकान और महाजन अपनी गद्दी में लक्ष्मी पूजन करके घर पर भी पूजन करते थे।
प्रसाद में लाई, बतासा और लड्डू का होता था वितरण
सन् 1948 के पहले तक दीवाली से तीन दिन तक बिक्री बंद रखी जाती थी। बहीखातों, तिजोड़ी, कलम-दवात, कैंची, नापने के गज, तराजू-बांट की भी पूजा होती थी। बाजार में दुकानों और गद्दियों पर बाजार के दुकानदार और महाजन अपने परिचितों और व्यवहारियों के यहां जाते थे। वे पांच या दस रुपये के सिक्के दुकान मालिक और गद्दी के महाजन को देते थे। यह रकम अलग कागज से लिख ली जाती और फिर दीवाली के तीन दिन बाद दी गई रकम और बूंदी के चार-चार लड्डू के साथ दुकान या गद्दी का नौकर वापस घर आता था। आपसी व्यवहार में इसका बड़ा महत्व होता। दीवाली का पूजन होने के बाद लाई, बतासा और लड्डू वितरित किया जाता था। इसे लेने के लिये बाजार में देर रात तक मांगने वालों की भीड़ लगी रहती थी।
1935 के बाद शुरु हुई आतिशबाजी
आतिशबाजी सन् 1935 के बाद शुरू हुई। फुलझड़ी, अनार दाना, रंगीन माचिस, महताब का चलन ही ज्यादा था। दीवाली को जुआं खेलना शुभ माना जाता था लोग खुले आम कौडिय़ों से बाजार और घरों में जुआं खेलते थे। दीवाली के समय धंधा स्थगित हो जाता था, अस्तु जुआं खेलना ही एक काम रह जाता था। जुआं की जीत व हार को आने वाले साल के शुभ व अशुभ से भी जोड़कर देखने की परम्परा थी, जो जीत जाता उसे विश्वास हो जाता कि आने वाला वर्ष शुभ होगा। बाजार में हर दुकान और गद्दी के सामने नगडि़य़ा और ढपली बजाने वाले टोली मे आकर बजाते थे, इन्हें लाई बताशा के साथ इनाम में नकद भी मिलता था। हर दुकान और घर के बाहर दीवाली की दोपहर में शुभ लाभ तथा लक्ष्मी गणेश सदा सहाय करें लिखा जाता था। लिखने के लिये सिन्दूर को दूध में घोलकर बांस की कलम से या पतली सींक में रुई लपेट कर लिखते थे।
हिंजड़ों की टोली वसूली थी इनाम
सन् 1940 से दीवाली की रात हिंजड़ों की टोली भी हर दुकान पर पहुंच कर इनाम वसूल करती थी। दीवाली और देवउठनी एकादशी सतना में बहुत धूमधाम से मनाने की परम्परा रही है। इन दोनों त्योहारों पर कई दिनों तक बाजार में तखत लगाकर जुएं के कई फड़ चलते थे। राज्य की ओर से इन अवसरों पर जुआं खेलने और जुआं खिलाने पर रोक नहीं होती थी। सन् 1950 के बाद से दीवाली मनाने में वैभव प्रदर्शन का प्रभाव बढऩा शुरू हुआ। यह वह समय था जब सिन्धी व्यापारियों ने सतना में खुद को स्थापित ही नहीं कर लिया था बल्कि उनका दबदबा बढऩे लगा था। बिजली की तेज सजावट, आतिशबाजी और वृद्धि और अनेकों किस्म की मिठाइयों के साथ सूखे मेवों का चलन होने लगा था। धीरे-धीरे बाजार में दीवाली आयोजन के लिये यहां नयनाभिराम लक्ष्मी गणेश की मूर्तियां बिकने लगीं। वहीं पूजन के वस्त्र, मालाओं की अनेकों वैरायटी, आतिशबाजी की बड़ी-बड़ी दुकानों ने दीवाली का पुरातन स्वरूप बदल दिया। सन् 1950 के पहले दीवाली के साथ बाजार में महाजनी सुगंध भी रहती थी। चकाचौंध और वैभव प्रदर्शन ने दीवाली को सर्वाधिक महंगा पर्व बना दिया।
समय के साथ सब कुछ बदल गया-चिंतामणि मिश्र
साहित्यकार एवं पत्रकार श्री चिंतामणि मिश्र का कहना है कि समय के साथ दीपोत्सव के अलावा सभी त्योहार का स्वरूप बदल गया है। अब सिर्फ दिखावा रह गया है। समयनें सबकुछ बदल दिया है। समय रहते आज का युवा नहीं चेता तो युवाओं को पैसा तो मिल जाएगा लेकिन अपने लोग और अपनापन पैसे से भी नहीं मिलेगा। हमारे जो त्योहार हैं उन्हे जानने के साथ उन्हें जीने की जरुरत है।