धर्म/ज्योतिष

नई बहू ससुराल में क्यों नहीं मनाती पहली होली? जानें इसके पीछे का कारण

नई दिल्ली
होली का त्योहार है और जब चारों दिशाएं इसी रंग में रंगी हुई हैं तो याद आता है कि इस पर्व की वजह भी तो किसी की करुण पुकार ही है. एक बच्चे की पुकार जो महज 11 या 12 साल का रहा होगा. प्रह्लाद नाम था उसका. दैत्यकुल में जन्मा था. ऐसा कुल, जिसकी खानदानी परंपरा ही थी विष्णु से विद्रोह, देवताओं से ईर्ष्या, मनुष्यता से बैर और सत्कर्मों से दूरी. इसी प्रह्लाद का पिता था दैत्यराज हिरण्यकश्यप.

हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी से वरदान मांगा था कि न उसे कोई मानव मार सके, और न ही कोई पशु, न रात और न ही दिन में उसकी मृत्यु हो, उसे कोई भी न घर के भीतर और न बाहर मार सके. इतना ही नहीं, उसने ये भी मांगा कि न धरती पर और न ही आकाश में, न किसी अस्त्र से और किसी शस्त्र से उसकी मृत्यु हो. हिरण्यकश्यप के घर जब प्रह्लाद का जन्म हुआ तो वह बचपन से ही विष्णुभक्त निकला. यह कथा, भागवत पुराण के सप्तम स्कन्ध में वर्णित है. हिरण्यकश्यप और उसके पुत्र प्रह्लाद की ये कहानी न केवल एक धार्मिक गाथा है, बल्कि इसमें निहित निःस्वार्थ भक्ति और बुराई पर अच्छाई की विजय का संदेश, आज के विचलित समाज को ईश्वर की मौजूदगी और उसके न्याय के प्रति अधिक विश्वास दिलाता है.

जैसे-जैसे प्रह्लाद बड़ा होता गया, उसके जन्म के संस्कार और अधिक प्रबल होते चले गए. वह पूरी तरह विष्णुभक्त बन गया. दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र और श्रीहरि के परमभक्त प्रह्लाद पर भीषण अत्याचार किए. वह चाहता था कि प्रह्लाद अपने पिता यानी खुद हिरण्यकश्यप की पूजा करे. लेकिन प्रह्लाद विष्णुभक्त थे. उनके मुंह से आठों पहर श्रीहरि का नाम निकलता था. जिससे हिरण्यकश्यप नाराज हो गया. उसने अपने बेटे प्रह्लाद को हाथी के पैरों के नीचे कुचलवाने की कोशिश की, उसे जहर दिया, सर्पों से भरे तहखाने में बंद कर दिया, ऊंचाई से फिंकवा दिया, जंजीरों में बांधकर पानी में डुबा दिया. लेकिन प्रह्लाद हर बार बच गए.

ऐसे भस्म हुई थी होलिका
फिर हिरण्यकश्यप ने होलिका के साथ मिलकर प्रह्लाद को मारने की योजना बनाई. होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी और उसका विवाह असुर विप्रचीति से हुआ था. एक बार, हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने प्रह्लाद को मारने के लिए अपने भाई का साथ दिया. भागवत कथा और विष्णु पुराण के अनुसार, होलिका को ब्रह्माजी से वरदान में ऐसा वस्‍त्र मिला था जो कभी आग से जल नहीं सकता था. बस होलिका उसी वस्‍त्र को ओढ़कर प्रह्लाद को जलाने के लिए आग में जाकर बैठ गई, जैसे ही प्रह्लाद ने भगवान विष्णु के नाम का जाप किया, होलिका का अग्निरोधक वस्त्र प्रह्लाद के ऊपर आ गया और वह बच गया, जबकि होलिका भस्म हो गई. मान्यता है, कि तब से ही बुराई पर अच्छाई की जीत के उत्साह स्वरूप सदियों से हर वर्ष होलिका दहन मनाया जाता है. होलिका दहन की कथा पाप पर धर्म की विजय का प्रतीक है.

नई बहु क्यों नहीं देखती होलिका दहन?
कई लोक कथाओं में होलिका की इसी कहानी का एक और स्वरूप मिलता है. कहते हैं कि जिस दिन होलिका ने आग में बैठने का काम किया, अगले दिन उसका विवाह भी होना था. उसके होने वाली पति का नाम इलोजी बताया जाता है. लोक कथा के मुताबिक, इलोजी की मां जब बेटे की बारात लेकर होलिका के घर पहुंची तो उन्होंने उसकी चिता जलते दिखी. अपने बेटे का बसने वाला संसार उजड़ता देख वह बेसुध हो गईं और उन्होंने प्राण त्याग दिए. बस तभी से ये प्रथा चला आ रही है कि नई बहू को ससुराल में पहली होली नहीं देखनी चाहिए. इसीलिए वह होली से कुछ दिन पहले मायके आ जाती हैं.

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button