फ़िल्म जगत

वीरेंद्र सक्सेना ने 18 की उम्र में घर छोड़ा

मुंबई

आज की स्ट्रगल स्टोरी में कहानी वीरेंद्र सक्सेना की। वीरेंद्र को सरकार, सुपर 30 और दिल है कि मानता नहीं जैसी फिल्मों के लिए जाना जाता है। हालांकि उन्हें बड़ा ब्रेक महेश भट्ट की फिल्म आशिकी से मिला था। 80 फिल्मों का हिस्सा रहे वीरेंद्र सक्सेना का यहां तक का सफर संघर्षों से भरा रहा। पिता के गुजर जाने के बाद तंगी से परेशान वीरेंद्र ने कम उम्र में ही छोटे-मोटे काम करने शुरू कर दिए थे। उन्होंने कभी बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर तो कभी राजा के यहां चिट्ठियां लिख कर घर का खर्च चलाया।

एक मामूली नाटक से शुरू हुआ एक्टिंग का सफर उन्हें ठरऊ तक ले गया, फिर वहां से उन्होंने एक टीवी फिल्म तमस से फिल्मों में एंट्री ली। 72 साल के वीरेंद्र सक्सेना को प्रोफेशनल लाइफ में हर मोड़ पर खुद को साबित करना है। वीरेंद्र कहते हैं, मेरी पैदाइश उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में हुई थी। हम 4 भाई-बहन थे और मैं उनमें सबसे छोटा था। पिता ड्रेनेज डिपार्टमेंट में छोटे पद पर कार्यरत थे। उनकी आमदनी कम थी और परिवार में लोग ज्यादा थे। सबकी जरूरतों को कम आमदनी में पूरा करना बहुत मुश्किल था। जब कभी-कभार पैसों की कमी होती, तो पड़ोसियों से उधार मांग कर खर्च निकाला जाता था। इसी तरह पूरा बचपन गरीबी में बीता। वक्त के साथ सभी की जरूरतें बढ़ने लगी थीं। हमने 2 गाय खरीद ली थी और मुर्गी पालन किया था। कुछ दिनों तक दूध और अंडे बेचकर भी घर के खर्च के चलाए। हालांकि इस दुख भरे सफर में भी हम खुश रहते थे। चारों भाई-बहन एक ही स्कूल में पढ़ते थे, ताकि किसी एक की फीस माफ हो सके। सभी की फीस लगभग 10-12 रुपए थी, मगर पिता इसे टाइम पर भर नहीं पाते थे तो हमारा नाम स्कूल से काट दिया जाता था। फिर फीस जमा करने के बाद ही दोबारा स्कूल में दाखिला होता था। बार-बार नाम कटने पर बहुत शर्मिंदगी होती थी। दोस्त मजाक भी बनाते थे, पर पिता की आर्थिक स्थिति से हम सभी वाकिफ थे। उनसे बिना कोई सवाल किए हम ये अपमान सह लेते थे। जैसे-तैसे कम पैसों में ही पूरा परिवार गुजर-बसर कर रहा था कि तभी 1966 में पिता का निधन हो गया। वो लंबे समय से कैंसर से पीड़ित थे। उनके चले जाने से मानों घर पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। पूरे घर में सिर्फ वही कमाने वाले थे। हम तीनों भाई उस वक्त पढ़ रहे थे और बहन की शादी हो गई थी। इस वक्त हमारे 4 मामा मसीहा बने। वो लोग हर महीने 50-50 रुपए भेज देते थे, जिससे कुछ हद तक घर और फीस का खर्च निकल जाता था।

कुछ समय बाद परिवार की बेहतरी के लिए मैं ग्रेजुएशन के साथ ट्यूशन पढ़ाने लगा, जिससे मुझे 12 रुपए महीने मिलते थे। फिर एक डॉक्टर के बच्चे को पढ़ाया, जहां पर 15 रुपए मिल जाते थे। पिता के निधन के बाद सबसे बड़ा बदलाव मेरे व्यवहार में आया। मेरी दोस्ती कुछ गुंडों से हो गई थी। दोस्ती होने का सबसे बड़ा कारण यह था कि मैं गाता-बजाता था, जिससे आस-पास के लोग मुझे जानने लगे थे। इसी तरह सबसे दोस्ती हो गई थी। वो लोग मामूली गुंडे नहीं थे, बल्कि लोगों की हत्या कर देते थे। कई बार मुझे पता रहता था कि कौन किसकी हत्या करने वाला है। मैं चाह कर भी विक्टिम की मदद नहीं कर पाता था। हर मुमकिन कोशिश करता था, लेकिन मेरे जानने वाले ही मुझे धमकी देने लगते। कुछ समय बाद यह समझ में आ गया कि ऐसी दोस्ती भारी पड़ सकती है। क्या पता कब मैं खुद विक्टिम बन जाऊं। इस कारण मन में मथुरा से बाहर जाने के ख्याल आने लगे।

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