मरीज मनीष यादव फेशियो स्कैपुलोह्यूमरल मस्कुलर डिस्ट्रॉफी से हैं पीड़ित, इलाज जारी
रीवा
डीन मेडिकल कॉलेज रीवा डॉ. सुनील अग्रवाल ने बताया कि मरीज मनीष यादव फेशियो स्कैपुलोह्यूमरल मस्कुलर डिस्ट्रॉफी ( एफएसएचडी ) से पीड़ित हैं, जो एक आनुवांशिक रोग है और वर्तमान चिकित्सा पद्धति में इसका कोई स्थायी इलाज उपलब्ध नहीं है। हालांकि, मरीज की स्वास्थ्य दशा स्थिर रखने के लिए फिजियोथेरेपी और अन्य आवश्यक उपचार उपलब्ध कराए जा रहे हैं, जिससे उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो सके।
डीन डॉ. अग्रवाल ने बताया कि सितंबर 2021 में मरीज को एम्स दिल्ली में भर्ती किया गया था और इस बीमारी के संबंध में मरीज और उनके परिजन को बताया गया था। इसके बाद अप्रैल 2023 में मेदांता हॉस्पिटल, गुड़गांव में भी मरीज की जांच में उन्हीं तथ्यों की पुनः पुष्टि हुई।
वर्तमान में मनीष यादव, मेडिकल कॉलेज रीवा के मेडिसिन आईसीयू एसपीडबल्यू, में भर्ती हैं। यादव को आवश्यकतानुसार उपचार सेवाएं दी जा रही हैं। उल्लेखनीय है कि फेशियो स्कैपुलोह्यूमरल मस्कुलर डिस्ट्रॉफी ( एफएसएचडी ) एक प्रकार की मस्कुलर डिस्ट्रॉफी है, जो आनुवांशिक बीमारी है और मांसपेशियों के क्षरण और प्रगतिशील कमजोरी का कारण बनता है।
पहले जान लीजिए क्या है मस्कुलर डिस्ट्रॉफी? डॉक्टर यत्नेश त्रिपाठी के मुताबिक मस्कुलर डिस्ट्रॉफी ऐसी बीमारी है, जिसमें इंसान कमजोर पड़ने लगता है। मसल्स सिकुड़ने लगती हैं और बाद में यह टूटने लगती हैं। यह एक तरह का आनुवंशिक रोग है। रोगी में लगातार कमजोरी आती है। उसकी मांसपेशियों का विकास रुक जाता है।
यह बीमारी पहले कूल्हे के आसपास की मांसपेशियों और पैर की पिंडलियों को कमजोर करती है। उम्र बढ़ते ही यह कमर और बाजू की मांसपेशियों को भी प्रभावित करना शुरू कर देती है।
पिता और बड़ी बहन में थे बीमारी के मामूली लक्षण उसरगांव में रामनरेश यादव (60) के पांच बेटे और दो बेटियां हैं। सबसे बड़ी बेटी सुशीला यादव (38) और दूसरे नंबर की रीतू यादव (36) हैं। इसके बाद भाइयों में सबसे बड़े सुरेश यादव (35), दूसरे नंबर के महेश यादव (28), तीसरे नंबर के अनीश यादव (25), चौथे नंबर के मनीष यादव (23) और पांचवें नंबर के मनोज यादव (20) हैं।
रामनरेश और उनकी बेटी सुशीला में बीमारी के मामूली लक्षण थे। 1998 से 2003 के बीच अनीश, मनीष और मनोज का जन्म हुआ। जैसे ही, 8 से 10 साल की उम्र में पहुंचे, वैसे ही इनका शरीर सूखने लगा। स्कूल आना-जाना जारी रहा। बीमारी पर बच्चों के नाना ने गौर किया।
वे 2006 में दिल्ली लेकर गए। वहां मस्कुलर डिस्ट्रॉफी बीमारी का नाम सामने आया। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, ऐसे में वे घर लौट गए। बच्चों की उम्र बढ़ती गई। सोशल मीडिया का दौर आया। समय-समय पर सोशल मीडिया के जरिए अपनी पीड़ा सुनाते रहे।