समाजवादी पार्टी के लिए इन 10 सीटों को जीतना इस बार डू ऑर डाई जैसा
नई दिल्ली
उत्तर प्रदेश में 7 मई को लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण के लिए वोटिंग होनी है. सभी की निगाहें ब्रज और रुहेलखंड क्षेत्रों पर हैं. कोर वोटर्स के लिहाज से देखा जाए तो ये चुनाव क्षेत्र समाजवादी पार्टी का गढ़ है. यादव-मुस्लिम बहुलता वाली इन 10 सीटों को इसलिए ही 'यादव लैंड' के नाम से भी जाना जाता है. हालांकि पिछले 2 चुनाव से अपने इस खास मैदान में अखिलेश यादव और उनकी पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है. इस बार के लोकसभा चुनावों में भी अगर समाजवादी पार्टी यहां की सीटों पर जीत का परचम नहीं लहरा पाती है तो हमेशा के लिए जमीन खोने का डर रहेगा.
समाजवादी पार्टी के लिए इन सीटों पर सबसे मजबूत समीकरण
एटा, फ़िरोज़ाबाद, मैनपुरी, बदायूँ और संभल जैसे निर्वाचन क्षेत्रों में, यादव मतदाताओं का बाहुल्य है. जो सैफई परिवार (मुलायम सिंह यादव परिवार) के लिए समर्पित रहे हैं. इसके साथ ही संभल, आंवला, फ़तेहपुर सीकरी, आगरा और फ़िरोज़ाबाद में मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. संभल में 50 फीसदी तो बरेली में 33 33 फीसदी आबादी मुस्लिम है. 2014 के चुनावों में सपा ने यहां केवल पांच सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की थी. आजमगढ़ और मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव जीते. कन्नौज से डिंपल यादव, फिरोजाबाद से अक्षय यादव और बदायूं से धर्मेंद्र यादव. मुलायम सिंह यादव द्वारा मैनपुरी लोकसभा सीट छोड़ने के बाद इसपर हुए लोकसभा उपचुनाव में सपा के तेज प्रताप सिंह यादव उर्फ तेजू चुनाव जीतकर संसद पहुंचे.
पर 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को यहां बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. ये यादव लैंड में समाजवादी पार्टी का अबतक का सबसे खराब प्रदर्शन था. इस चुनाव में मैनपुरी से मुलायम सिंह यादव और संभल से शफीकुरहमान बर्क ही चुनाव जीत सके थे. राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह अन्य पिछड़ी जातियां भाजपा की ओर एकजुट हुईं उससे सपा को विजय दिलाने वाला मुस्लिम-यादव समीकरण का प्रभाव कम हुआ.
परिवार के बाहर के यादवों को टिकट नहीं मिलना भी विरोध में जा सकता है
समाजवादी पार्टी के कोर वोटर्स यादव रहे हैं. पर इस बार जिस तरह अखिलेश यादव ने केवल अपने परिवार के लोगों को ही टिकट दिया, उसका गलत मतलब निकाला जा सकता है. बीजेपी और बीएसपी इस बात को इस तरह प्रचारित कर रही है कि समाजवादी पार्टी की नजर में केवल परिवार के लोग ही यादव हैं. सपा 2024 के लोकसभा चुनाव में सूबे की कुल 80 में से 62 सीट पर चुनाव लड़ रही है और बाकी सीट सहयोगी दलों को दी गई हैं. पर समाजवादी पार्टी की लिस्ट में इस बार केवल पांच यादव प्रत्याशी उतारे हैं, जिनमें कन्नौज सीट पर खुद अखिलेश यादव चुनाव लड़ रहे हैं तो मैनपुरी सीट से उनकी पत्नी डिंपल यादव मैदान में हैं. आजमगढ़ सीट से धर्मेंद्र यादव, बदायूं से शिवपाल यादव के बेटे आदित्य यादव और फिरोजाबाद सीट से रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव चुनाव लड़ रहे हैं. जिस तरह दूसरी पार्टियां बीजेपी और बीएसपी यादव समुदाय को पटाने में लगी हैं उससे तो यही लगता है कि इस बार के चुनावों में कुछ परसेंट यादव वोट भी टूटेगा. बहुजन समाज पार्टी ने कुल 4 प्रत्याशी यादव समाज से उतारे हैं.
यादव वोटर्स को साधने में लगी बीजेपी
बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व पिछले कई सालों से यादव वोटों को साधने में लगा है. बीजेपी समझती है कि अगर यूपी और बिहार में राज करना है तो समाजवादी पार्टी और आरजेडी जैसी पार्टियों से यादव समाज को छीन लेना होगा. शायद यही कारण है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री का पद मोहन यादव को बनाया गया. बीजेपी यादव समुदाय में यह संदेश देना चाहती थी कि पार्टी में यादव लोग सर्वोच्च पदों को पा सकते हैं. यही कारण है कि पार्टी ने प्रदेश के यादव बाहुल्य वाले इलाकों में मोहन यादव की की विजिट भी कराई है. इसी क्रम में ही भारत सरकार ने मुलायम सिंह यादव को मरणोपरांत पद्मविभूषण पुरस्कार से नवाजा गया. उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी यादव महासभा को भी बीजेपी ने अपने साथ मिला लिया है.
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने सैफई और मैनपुरी में अखिलेश का नाम लिए बिना परिवारवाद का आरोप लगाया और श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुद्दा उठाया था. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इसके सियासी निहितार्थ हैं. मोहन यादव ने सवाल किया कि आखिर सपा ने प्रदेश के अन्य यादवों को टिकट क्यों नहीं दिया? मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने भगवान श्रीकृष्ण का जिक्र करते हुए ब्रजभूमि के विकास और उससे करहल व जसवंत नगर को जोड़ने की दुहाई देकर साफ कर दिया है कि पार्टी किसी भी यादव वोटों को समेट लेना चाहती है.
गैर यादव पिछड़ी जातियों का कितना समर्थन मिलेगा
तीसरे चरण में जिन सीटों पर मतदान होने वाला है, गैर यादव वोटों में, खासकर लोध एक महत्वपूर्ण और निर्णायक ताकत के रूप में उभरे हैं. अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में, काछी, शाक्य और मुराओ समुदायों का प्रभाव है, जो चुनावों निर्णायक साबित होते हैं. यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह के चलते लोध बीजेपी का कोर वोटर बन चुका है. काछी , शाक्य आदि वोट में भी बीजेपी सेंध लगा चुकी है. मुलायम सिंह यादव जब तक मजबूत रहे इन जातियों को समाजवादी पार्टी के लिए समेटे रहे. इसीलिए शायद इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव ने जनाधार बढ़ाने के लिए पीडीए यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फॉर्मूला तैयार किया है. पर अखिलेश को गैर यादव पिछड़ी जातियों का जितना समर्थन पूर्वी यूपी में मिल रहा है उतना शायद पश्चिम यूपी में न मिले.
कांग्रेस साथ पर बीएसपी नहीं है इस बार
समाजवादी पार्टी के लिए इस बार सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि बीएसपी उसके साथ नहीं है. पिछली बार 2019 के चुनावों में इन 10 सीटों में से, सत्तारूढ़ भाजपा ने आठ पर जीत हासिल की थी. जबकि समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था. केवल दो सीट ही जीतने में कामयाब हुई थी. इस बार समाजवादी पार्टी के साथ न बीएसपी है और न ही आरएलडी है. हालांकि कांग्रेस का साथ मिला है इस बार.बहुजन समाज पार्टी के मैदान में आने के चलते सभी सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला हो गया है.
मुलायम की कमी खलेगी
समाजवादी पार्टी पहली बार लोकसभा चुनावों में बिना मुलायम सिंह के चुनाव मैदान में है. शायद इसलिए भी अखिलेश यादव के लिए यह कड़ी परीक्षा है. सपा के गठन के बाद से अब तक जितने भी चुनाव हुए, उसमें मुलायम की बड़ी भूमिका रहती थी. यूपी में विपक्षी गठबंधन को अखिलेश लीड कर रहे हैं. पिछले दो लोकसभा चुनावों और 2 विधानसभा चुनावों में सपा कुछ खास नहीं कर पाई है. जमीन से जुड़े नेता होने के कारण ही मुलायम को धरती पुत्र कहा जाता रहा है. वह पार्टी को यादवों की पार्टी बनाने के साथ ही पिछड़े वर्ग की पार्टी भी बनाए रखे. यह इसलिए संभव हो सका कि पिछड़े वर्ग के नेताओं से उनका सामंजस्य बेहतर बनाए रखा. इटावा, मैनपुरी, कन्नौज में यादव बहुल सीट पर मजबूत एमवाई समीकरण के कारण वह हमेशा मैदान में बाजी मारते रहे. यादव के आलवा दूसरी प्रभावशाली पिछड़ी जातियों पर पकड़ से वह हमेशा आगे रहे.अखिलेश की राजनीति में कभी कभी ऐसा लगता है कि पार्टी के कोर वोटर्स यादव और मुसलमान भी न उनका साथ छोड़ दें. आज अखिलेश के साथ आजम खान कितना हैं, ये भी समझ में नहीं आता. ओमप्रकाश राजभर, संजय निषाद, जयंद चौधरी ,दारा सिंह चौहान, केशव देव मौर्य आदि साथ छोड़ चुके हैं. अपना दल कमेरावादी से भी उनका संबंध खराब हो चुका है.