राजनीति

लोकसभा चुनाव: इलेक्टोरल बॉन्ड लाने के पीछे का यह था असली मकसद

नई दिल्ली
लोकसभा चुनाव के पहले ही चुनावी बॉन्ड का मुद्दा गहरा गया। सत्ता पक्ष और विपक्ष इसको लेकर एक-दूसरे के सामने हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर जो विपक्ष आरोप लगा रही है, उसमें कितनी सच्चाई है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है? सरकार का इसको लाने के पीछे का मकसद क्या था? और, इससे क्या फायदा होता? क्या इलेक्टोरल बॉन्ड से ब्लैक मनी की आवाजाही पर रोक लगाया जा सकता है?

दरअसल, राजनीतिक पार्टियों के इनकम का मुख्य स्त्रोत चुनावी चंदा है। जिसके जरिए पार्टियां अपना खर्चा चलाती हैं। इसके जरिए वह मतदाताओं तक अपनी पहुंच बढ़ाती हैं। ऐसे में राजनीतिक दल इन चुनावी चंदों का उपयोग रिसर्च, प्रचार, पब्लिक वेलफेयर के कामों के लिए, लोगों से जुड़ने और पार्टी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए करती हैं। वैसे आपको बता दें कि चुनावी चंदे का कल्चर बहुत पुराना है। यह पार्टियों के लिए आजादी से पहले से चल रहा है। तब, आजादी की लड़ाई के लिए लोग पार्टी को चंदे के रूप में सहयोग देते थे।

जब भारत आजाद हुआ तो कांग्रेस जैसी पार्टियां थी, जिसे आम लोग तो चंदा देते ही थे, साथ ही साथ बड़े उद्योगपति भी इसे ज्यादा चंदा देते थे। इसी चंदे के पैसे से पार्टी अपना पूरा खर्चा चलाती थी। हालांकि, जब तक इलेक्टोरल बॉन्ड का सिस्टम नहीं आया तब तक ज्यादातर चंदा कैश में आता था। जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं होता था। इसके बाद 2016 में चुनावी चंदे के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड लाया गया।

इस इलेक्टोरल बॉन्ड को एक तरह का बैंक बॉन्ड बनाया गया। जिसे बैंक के जरिए खरीदा जाता है। इसके जरिए दान देने वाले बॉन्ड बैंक से खरीदते हैं। यह बॉन्ड जिसने खरीदा उसके बारे में बैंक को जानकारी होती है। इसके बाद यह बॉन्ड जिस भी पार्टी को दिया जाता है, उनके अकाउंट में यह क्रेडिट होता है, वहां भी यह रिफ्लेक्ट होता है। हालांकि, इस दौरान दानदाता की पहचान गुप्त रखी जाती है।

इसको लेकर यह सोच थी कि कुछ कंपनियों को या लोगों को लगता था कि जब हम किसी पार्टी को चंदा देंगे और बाद में दूसरी सरकार बनी तो वह उन्हें परेशान करेंगे। ऐसे में दानकर्ता के नाम को गुप्त रखने का फैसला लिया गया। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया को सूचना के अधिकार का उल्लंघन मानते हुए खारिज कर दिया।अब बात करें इलेक्टोरल बॉन्ड के द्वारा दिए गए चंदे की तो भाजपा को 6,060 करोड़, इसके बाद तृणमूल कांग्रेस जिसको 1,609 करोड़ का बॉन्ड हासिल हुआ, जो एक क्षेत्रीय पार्टी है। इसके बाद कांग्रेस का नंबर आता है, जिसे 1,421 करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिले हैं। दिक्कत कांग्रेस को यहीं से शुरू हुई।

इलेक्टोरल बॉन्ड को प्राप्त करने के लिए नियम यह भी था कि आपका मिनिमम वोट परसेंट 1 प्रतिशत होना चाहिए। इसके साथ ही केवाईसी अनिवार्य था। इसके साथ ही कैश इसमें नहीं दिया जा सकता है। ऐसे में एक बार बॉन्ड पर नजर डालें तो 12,769 करोड़ बॉन्ड्स में से कुल 47 प्रतिशत हिस्सा भाजपा को गया। जबकि, टीएमसी को 12.6 प्रतिशत और कांग्रेस के हिस्से में 11 प्रतिशत की बॉन्ड हिस्सेदारी आई है।

अब इन्हीं बॉन्ड्स को सांसदों की संख्या के आधार पर देखें तो पता चलेगा कि सांसदों के लिहाज से किसको कितना चंदा मिला है। बीआरएस को प्रति सांसद 200.43 करोड़ रुपए चंदा मिला है। जबकि, इसके बाद टीडीपी को 110 करोड़ प्रति सांसद के हिसाब से चंदा मिला है। इसके बाद डीएमके का नंबर है, जिसे 76.69 करोड़, तृणमूल कांग्रेस को प्रति सांसद 73.68 करोड़ इसके साथ ही कांग्रेस को प्रति सांसद 27.03 करोड़ रुपए चंदे के रूप में मिले हैं। भाजपा को सिर्फ 20.03 करोड़ रुपए प्रति सांसद चंदा मिला है। जबकि, उसके 303 सांसद हैं।

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