राजनीति

CM पद देने की बात तो दूर, महाविकास आघाड़ी में उद्धव ठाकरे के लिए मनमाफिक सीटें भी नहीं छोड़ी

मुंबई

ये ठाकरे परिवार की ताकत नहीं तो क्या है, बीजेपी को महाराष्ट्र की राजनीति में अपने बूते खड़े होने के लिए अब भी जूझना पड़ रहा है. मुश्किल ये है कि बालासाहेब ठाकरे ने जो कुछ कमाया था, उद्धव ठाकरे ने एक झटके में गंवा दिया. महाराष्‍ट्र की राजनीति में अब मातोश्री का वो महत्‍व नहीं है, जो भाजपा से गठबंधन के दौर में हुआ करता था.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की जिस कुर्सी के लिए उद्धव ठाकरे ने बीजेपी के खिलाफ जंग छेड़ी, उस पर भी आधे कार्यकाल तक ही टिक पाये, और जब सरकार गई तो संगठन से भी हाथ धोना पड़ा. उद्धव ठाकरे को महाराष्ट्र के लोगों को शुक्रिया कहना चाहिये कि लोकसभा चुनाव 2024 में थोड़ी बहुत इज्जत रख ली – लेकिन कांग्रेस को ज्यादा सीटें देकर उद्धव ठाकरे को कहीं का छोड़ा भी नहीं.

और अब तो उद्धव ठाकरे की हालत और भी बुरी होती लग रही है. मुख्यमंत्री पद देने की बात तो दूर, शरद पवार और राहुल गांधी ने महाविकास आघाड़ी में उद्धव ठाकरे के लिए उनके मनमाफिक सीटें भी नहीं छोड़ी हैं – अब तक ये तो साफ हो ही गया है कि बीजेपी के साथ ही उद्धव ठाकरे के भी अच्छे दिन हुआ करते थे.

क्या से क्या हो गये देखते देखते!

पांच साल पहले उद्धव ठाकरे कहां थे, और अब कहां पहुंच चुके हैं – अगर परिस्थितियों, उपलब्धियों और चुनौतियों के पैमाने पर रखकर तुलना करें तो बहुत कुछ बदल चुका है. उद्धव ठाकरे के खाते में उपलब्धि के नाम पर सिर्फ एक ही चीज दर्ज हुई है, ढाई साल के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी – लेकिन बाकी सब घाटे का ही सौदा रहा है.

1. उद्धव ठाकरे जब भारतीय जनता पार्टी के साथ हुआ करते थे चुनावों के दौरान बीजेपी के साथ साथ करीब 50-50 के पार्टनर हुआ करते थे, लेकिन MVA में उनकी हिस्सेदारी एक-तिहाई बनकर रह गई है.

2. 2019 में उद्धव ठाकरे की पार्टी 165 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरी थी, लेकिन इस बार उनको महज 85 सीटों से संतोष करना पड़ रहा है. MVA में जो सीट शेयरिंग का फार्मूला तय हुआ है, उसके हिसाब से शिवसेना (UBT), कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार) तीनों को 85-85-85 सीटें मिल रही हैं. मतलब, अभी 255 सीटों पर तस्वीर साफ हुई है, जबकि 33 सीटें रिजर्व रखी गई हैं. संजय राउत का तो दावा है कि 270 सीटों पर बात बन गई है. बताते हैं कि 33 सीटें INDIA ब्लॉक के बाकी सहयोगी दलों समाजवादी पार्टी और सीपीएम के लिए बचाकर रखी गई हैं, लेकिन अभी तस्वीर नहीं साफ है.

3. सवाल ये है कि कितना भी बेहतर परफॉर्मेंस कर लें, क्या उद्धव ठाकरे पिछली बार जितनी सीटें नहीं जीत पाएंगे? 2019 में बीजेपी-शिवसेना में बीजेपी को 105 सीटें और शिवसेना को 56 सीटें मिली थी.

महाराष्ट्र में 20 नवंबर को एक ही फेज में वोटिंग होगी – और 23 नवंबर को नतीजे आने की अपेक्षा है.

मुख्यमंत्री बन पाना तो किस्मत की बात होगी!

  उद्धव ठाकरे ने खुद को एमवीए के मुख्यमंत्री पद का चेहरा बना दिये जाने की हर मुमकिन कोशिश की, लेकिन न तो शरद पवार और न ही राहुल गांधी ने ऐसा कोई वादा किया – अब तो जो ज्यादा सीटें जीतेगा, दावेदारी उसीकी मजबूत होगी.

1. पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने के लिए उद्धव ठाकरे ने सार्वजनिक बयानों का सहारा लिया. फिर शरद पवार का साथ मिलने की उम्मीद रही, लेकिन वो भी दगा दे गये. बल्कि, वो तो जयंत पाटिल का भी नाम लेने लगे हैं. दिल्ली पहुंचकर गांधी परिवार से मिलकर गुजारिश भी की, लेकिन मुख्यमंत्री पद देने के लिए कोई भी राजी नहीं हुआ.

2. जब देखा कि विपक्षी गठबंधन मुख्यमंत्री का नाम घोषित करने से बचना चाह रहा है, तो कदम पीछे खींचकर उद्धव ठाकरे ने सुझाव दिया कि सार्वजनिक घोषणा भले न हो, कम से कम तय तो कर ही लिया जाये कि मुख्यमंत्री कौन होगा – लेकिन ये तो किसी को मंजूर न था.

3. उद्धव ठाकरे के हिस्से वाली शिवसेना के प्रभाव क्षेत्र का दायरा भी सिकुड़ता जा रहा है. महाराष्‍ट्र में महज मुंबई-कोंकण तक सिमट जाने का खतरा पैदा हो गया है. पुणे और आसपास तो एकनाथ शिंदे ही जमे हुए हैं, जहां बीजेपी के लिए भी उनको बेदखल करना मुश्किल हो रहा है.

सेक्युलर पॉलिटिक्स करने की मजबूरी

MVA में होने के कारण उद्धव ठाकरे की पार्टी के सामने हिंदुत्‍व की राजनीति का विरोध करने की मजबूरी भी है. कांग्रेस और शरद पवार के साथ खड़े होने के लिए उद्धव ठाकरे को भी वही बोलना पड़ता है, जो गठबंधन की पॉलिटिकल लाइन बनी हुई है.

हिंदुत्व का एजेंडा ही नहीं, शिवसेना तो कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करती आ रही थी. बीजेपी के हिंदुत्व से भी चार कदम आगे. देखा जाये तो नई बीजेपी भी पुरानी शिवसेना के मुकाबले नहीं टिक पाती – लेकिन सेक्युलर दलों का साथ देने के नाम पर उद्धव ठाकरे को क्या क्या नहीं करना और सहना पड़ रहा है.

उद्धव ठाकरे बार बार हिंदुत्व की बात दोहराते हैं, लेकिन लोगों तक संदेश पहुंचते पहुंचते वो रस्मअदायगी जैसा ही हो जाता है. उद्धव ठाकरे अपने हिंदुत्व को बीजेपी से बेहतर बताने की कोशिश करते हैं, लेकिन बीजेपी के आक्रामक रुख के आगे वो नहीं टिक पाते.

अगर बीजेपी सबका साथ सबका विकास जैसा नारा देती है, तो किसी को दिक्कत नहीं होती, लेकिन उद्धव ठाकरे का हिंदुत्व की बात करना भी असरदार नहीं होता. भले ही उद्धव ठाकरे धारा 370, तीन तलाक और अयोध्या के मुद्दे पर पुराने स्टैंड पर ही कायम क्यों न रहते हों.

 

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