जोशीमठ में भगवान नृसिंह का 12 सौ साल पुराना मंदिर आकर्षण का केन्द्र
मंदिर में है आदि गुरु शंकराचार्य की गद्दी
(RIN)। फाल्गुन महीने के शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि पर भगवान नृसिंह की पूजा की जाती है। इसलिए इसे नृसिंह द्वादशी कहा जाता है। भगवान वष्णिु का चौथा अवतार नृसंिह रूप में हुआ था। उन्होंने ये अवतार हिरण्यकश्यपु के संहार और भक्त प्रहृलाद की रक्षा के लिए धारण कयिा था। उत्तराखंड के जोशीमठ में भगवान नृसिंह का करीब 1 हजार साल से ज्यादा पुराना मंदिर है। जिसका संबंध सृष्टि के वनिाश से माना जाता है। इस मंदिर को नृसिंह बदरी भी कहा जाता है। यहां दर्शन करने से सभी संकट दूर हो जाते हैं। माना जाता है कि यहां भगवान नृसिंह हर मन्नत पूरी करते हैं। आम दिनों में इस मंदिर में लोगों का सालभर आना-जाना लगा ही रहता है। वहीं ठंड के मौसम में भगवान बदरीनाथ इसी मंदिर में विराजते हैं। यही उनकी पूजा की जाती है। माना जाता है कि जोशीमठ में नृसिंह भगवान के दर्शन किए बिना बदरीनाथ धाम की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती। मंदिर में स्थापित भगवान नृसिंह की मूर्ति शालिग्राम पत्थर से बनी है। इस मूर्ति का निर्माण आठवीं शताब्दी में कश्मीर के राजा ललितादित्य युक्का पीड़ा के शासनकाल के दौरान किया गया और कुछ लोगों का मानना है कि मूर्ति स्वयं-प्रकट हो गई। मूर्ति करीब 10 इंच कही है और भगवान नृसिंह एक कमल पर विराजमान हैं 7 भगवान नृसिंह के साथ इस मंदिर में बद्रीनारायण, उद्धव और कुबेर की मूर्तियां भी मौजूद है। मंदिर में भगवान नृसिंह के दाएं ओर भगवान राम, माता सीता, हनुमान जी और गरुड़ की मूर्तियां स्थापित हैं और बाई ओर कालिका माता की प्रतिमा है।
राजतरंगिणी ग्रंथ के मुताबिक 8वीं सदी में कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड़ द्वारा अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान प्राचीन नृसिंह मंदिर का निर्माण उग्र नृसिंह की पूजा के लिये हुआ जो भगवान विष्णु का अवतार है। इसके अलावा पांडवों से जुड़ी मान्यता भी है कि उन्होंने स्वर्गरोहिणी यात्रा के दौरान इस मंदिर की नींव रखी थी। वहीं, एक अन्य मत के मुताबिक इस मंदिर की स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की क्योंकि वे नृसिंह भगवान को अपना ईष्ट मानते थे।